Sunday, May 8, 2011

पॉपुलर कल्चर और नया नज़रिया


हमारे समाज में जिस तरह पापुलर कल्चर के प्रति अनालोचनात्मक प्रचार चल रहा है और प्रगतिशीलों के द्वारा जिस तरह पापुलर कल्चर की उपेक्षा की जा रही है वह चिन्ता की चीज है। पापुलर कल्चर को लेकर प्रगतिशीलों में दो तरह का नजरिया रहा है,पहला नजरिया यह मानकर चलता है कि पापुलर कल्चर के अंदर जाकर काम करो,उसके विधा और मीडिया रुपों का इस्तेमाल करो और समाज में अच्छे विचारों और मूल्यों का प्रचार करो। यानी पापुलर कल्चर को प्रचार से ज्यादा वे महत्व नहीं देते।

दूसरा नजरिया पापुलर कल्चर को आए दिन धिक्कारता रहता है। धिक्कार और पूजा के परे जाकर आलोचनात्मक नजरिए से पापुलर कल्चर के तमाम पहलुओं पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए। बोर्द्रिओ का मानना है कि सांस्कृतिक अभ्यासों और सांस्कृतिक परंपरा के ज्ञान का गहरा संबंध शिक्षा और सांस्कृतिक अभिरुचि के स्तर के साथ है। इसमें शिक्षा की निर्णायक भूमिका है। शिक्षा के द्वारा ही सांस्कृतिक अभ्यास और आदतें निर्मित की जाती हैं। इसके अलावा सांस्कृतिक आकांक्षाएं और इच्छाएं भी शिक्षा के कारण पैदा होती हैं। किसी व्यक्ति में किस तरह की सांस्कृतिक इच्छा और आकांक्षाएं हैं ,यह इस बात से तय होगा कि उसकी किस तरह की शिक्षा हुई है और किस तरह के सांस्कृतिक अभ्यासों से गुजरा है। संस्कृति लोगों को प्रेरणा प्रदान करे इसके लिए जरुरी है कि उन्हें शिक्षा प्रदान की जाय। इसके अलावा दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है परिवार। व्यक्ति किस तरह की पारिवारिक पृष्ठभूमि से आता है और परिवार उसके अंदर किस तरह का सांस्कृतिकबोध निर्मित करता है।

संस्कृति के निर्माण में शिक्षा के बाद दूसरा सबसे बड़ा संस्थान है परिवार। शिक्षा और परिवार ये दो तत्व ऐसे हैं जो व्यक्ति के लिए सांस्कृतिक संपदा पैदा करते हैं। मसलन् एक व्यक्ति है जो बेहतरीन सांस्कृतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से आता है,बेहतर शिक्षा पाता है,दूसरा व्यक्ति भी उसी आर्थिक स्तर के परिवार से आया है और समान रुप से बेहतर शिक्षा पाता है,किंतु उसके पास पारिवारिक-सांस्कृतिक संपदा नहीं है ,ऐसे में दोनों का सांस्कृतिकबोध एक ही स्तर का नहीं होगा। क्योंकि पहले वाले व्यक्ति के पास सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है जबकि दूसरे के पास इसका अभाव है। परिवार की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति के सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण में गहरी भूमिका होती है। मजदूरवर्ग के परिवारों से आने वाले लोगों के पास किसी भी किस्म की सांस्कृतिक संपदा( कल्चर कैपीटल) नहीं होती। यही वजह है कि वे अपने बच्चों को किसी भी किस्म की संस्कृति नहीं सौंपते। वे किसी भी किस्म की वैध सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय नहीं होते। वे वैध सांस्कृतिक रुपों को भी समझने या उनक प्रशंसा करने में असमर्थ होते हैं। वे सांस्कृतिक तौर पर धमकाए जाते हैं अथवा अपमानित किए जाते हैं। अथवा वे संस्कृति के प्रति उदासीन रहते हैं।

संस्कृति के सम्मुखीन होने का अर्थ है अपनी चेतना के सम्मुखीन होना। यही वजह है कि मजदूरवर्ग के लोग संस्कृति से वंचित ही नहीं होते बल्कि वे जानते ही नहीं हैं कि वे वंचित हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि मजदूरवर्ग के लोग संस्कृति की आकांक्षा तक से वंचित होते हैं। वे उसका मूल्य नहीं समझते, इस चीज को पहचान नहीं पाते कि उनका प्रेरक मूल्य कौन सा है। यही वह बुनियादी बिंदु है जिसके आधार पर पियरे बोर्दिओ ने '' सांस्कृतिक आवश्यकता'' (कल्चरल नीड्स)की धारणा पर जमकर हमला किया है। बोर्दिओ का मानना है कि ''सांस्कृतिक आवश्यकता'' हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था पैदा करती है। इसी बुनियादी तत्व को केन्द्र में रखकर बोर्द्रिओ ने कहा है कि स्कूली शिक्षा व्यवस्था मजदूरवर्ग के हितों के खिलाफ काम कर रही है। स्कूली व्यवस्था हमारे समाज में व्याप्त असमानता को रेखांकित करने,उसे दूर करने में असमर्थ रही है। सामाजिक असमानता के जनतांत्रिक रेहटोरिक का हमने प्रचार ज्यादा किया है किंतु हमारी स्कूली व्यवस्था मूलत: मजदूरवर्ग विरोधी रही है। यही बात भारत के संदर्भ में भी लागू होती है। हमने अपनी स्कूली शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का जितना प्रचार किया है और उसका कोर्स बनाया है,बुनियादी तौर पर यह सारा प्रयास मजदूरवर्ग विरोधी है। मजदूरवर्ग के नजरिए से हमने स्कूल व्यवस्था को कभी देखने का प्रयास ही नहीं किया। जब एक बार हमने स्कूल व्यवस्था को सामाजिक असमानता के सामने बलि चढ़ा दिया तब बाकी सांस्कृतिक वैषम्य को दूर करना संभव ही नहीं होगा। ऐसे में संस्कृति को लेकर कमजोर समझ और सही समझ का भेद बना रहेगा।

सामाजिक सांस्कृतिक वैषम्य को दूर करने के पहले जरुरी है कि स्कूली शिक्षा को दुरुस्त किया जाय। उसे मजदूरवर्ग के नजरिए के अनुरुप तैयार किया जाय। तब ही सांस्कृतिक अंतरों को चुनौती दी जा सकती है,सांस्कृतिक बढ़त और पिछडेपन को समझा जा सकता है,उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। जो लोग पापुलर कल्चर के पक्ष में विभिन्न माध्यमों में आए दिन चालाकी और दिशाहीन ढ़ंग से हिमायत करते रहते हैं, वे ''संस्कृति पाने के लोकतांत्रिक अधिकार' से वंचित करने की प्रक्रियाओं की अनदेखी करते हैं। पापुलर कल्चर के पक्षधर यह तर्क देते हैं कि 'वे संस्कृति का जनतांत्रिकीकरण' कर रहे हैं। इस तर्क की बोर्द्रिओ ने तीखी आलोचना की है। बोर्द्रिओ ने सवाल किया है कि हमें सांस्कृतिक अभ्यासों की वैज्ञानिक अवधारणा का निर्माण करना चाहिए। जिससे उन परिस्थितियों को जान सकें कि आखिरकार किन परिस्थितियों में संस्कृति निर्मित होती है। इसके आधार पर ही संस्कृति के लोकतांत्रिकीकरण की यथार्थवादी और प्रभावशाली नीति निर्मित की जा सकती है। हमारे ज्यादातर संस्थानों की नीतियां मजदूरवर्ग विरोधी रही हैं। वे मजदूरवर्ग पर हमले करती रही हैं। हमारी कलादीर्घाओं, संग्रहालयों, सांस्कृतिक केन्द्रों में किस तरह के लोग आते हैं,ये वे लोग है जो पहले से ही सांस्कृतिक समर्थ हैं,ये मध्यवर्ग के लोग हैं। ये वे लोग हैं जो हमारी स्कूली व्यवस्था से आ रहे हैं,ये वे लोग हैं जो अलग से किसी खास सांस्कृतिक शिक्षा में तपकर नहीं आए हैं बल्कि सामान्य स्कूली शिक्षा ने ही इनके अंदर सांस्कृतिकबोध पैदा किया है। इसका अर्थ यह है कि स्कूली शिक्षा दीर्घकालिक सांस्कृतिकबोध निर्मित करती है। इससे एक बात सिध्द होती है कि स्कूली शिक्षा व्यवस्था की गतिविधियां हाशिए की गतिविधि नहीं है बल्कि केन्द्रीय गतिविधि है।
बोर्द्रिओ ने संस्कृति हासिल करने की प्रक्रिया के लोकतांत्रिकीकरण के सवालों ,आदर्श संस्कृति के सवालों आदि को उठाया है। यह वह संस्कृति है जो लोगों को आकर्षित करती रहती है। शिक्षा और राज्य के संस्थान संस्कृति के कल्ट को पैदा करने के केन्द्र बनकर रह गए हैं। ये उन्हीं लोगों को तैयार करते हैं जो संस्कृति में डूबे हुए हैं। संस्कृति के प्रति आस्थावान हैं। किंतु जिन लोगों के पास अब तक शिक्षा नहीं पहुँच पायी है और जिन्हें अब तक संस्कृति से वंचित रखा गया उन्हें कैसे शिक्षा और संस्कृति के करीब लाया जाय,इस ओर हमने अभी तक कोई प्रयास नहीं किया। किसी व्यक्ति को शिक्षित करने अर्थ यह नहीं है कि वह सांस्कृतिक तौर पर समर्थ बन गया है। शिक्षा स्वयं में सांस्कृतिक मूल्य पैदा नहीं करती। इससे सिर्फ इतना पता चलता है कि व्यक्ति शिक्षा में सफल रहा है।
वे ही लोग शिक्षा की सीमाओं का अतिक्रमण कर पाते हैं जो अकादमिक संस्कृति को आत्मसात् कर लेते हैं,जो अकादमिक संस्कृति के मुक्तिकामी संस्कारों को अपने अंदर समाहित कर लेते हैं। क्योंकि शिक्षा व्यवस्था में यही वह तत्व है जो गहराई में जाकर प्रभुत्वशाली वर्ग के मूल्यों को सहज ही आत्मसात करने के लिए तैयार करता है। आज अकादमिक जगत में अकादमिक अभ्यास और अकादमिक प्रतिवाद के बीच विवाद फैशन के रुप में दिखाई देता है। दूसरी ओर प्रामाणिक संस्कृति है जिसने अपने को स्कूल विमर्श से मुक्त कर लिया है। इसकी चंद सांस्कृतिक लोगों के लिए ही प्रासंगिकता रह गयी है। क्योंकि अकादमिक संस्कृति पर पूर्ण अधिकार ही स्कूल संस्कृति के परे जाने और पूरी तरह मुक्त संस्कृति को पाने की शर्त है।इसका अर्थ है कि संस्कृति को अकादमिक क्षेत्र के बाहर फेंक दिया गया है जबकि पहले संस्कृति को बुर्जुआजी और शिक्षा जगत सबसे ज्यादा मूल्यवान मानता था,उसे सम्मान देता था।
प्रामाणिक संस्कृति वह है जिसे हम संस्कृति का मुक्त क्षेत्र कहते हैं। जो स्कूल व्यवस्था में भी है और उसके परे भी जाती है। मसलन् ज्यों ही कोई नया सांस्कृतिक माल बाजार में आता है तो बुर्जुआजी उसे आत्मसात करने के लिए कहता है। यह वह माल है जो स्कूल व्यवस्था के बाहर है। मसलन् जॉज या सिनेमा है,ये शिक्षा के बाहर है और वैध सांस्कृतिक माल भी हैं। यह एक तरह की सांस्कृतिक वैधता भी प्रदान करता है। इन्हें वे लोग आत्मसात करते हैं जो वैध संस्कृति को आत्मसात करने की स्थिति में होते हैं। बोर्द्रिओ का मानना है कि सांस्कृतिक विषयों की प्रस्तुति और समाधान मूलत: व्यक्ति के निजी एटीट्यूट पर निर्भर करती है। इसे '' सांस्कृतिक अभ्यासों की चमत्कारिक विचारधारा'' की सैध्दान्तिकी के आधार पर ही हल किया जाता है। अभिजन का संस्कृति के साथ जिस तरह का रिश्ता होता है वही व्यवहार में फ्रांस में वर्चस्व बनाए हुए है। अभिजन का संस्कृति के प्रति नजरिया स्वाभाविक, अनारोपित, सांस्कृतिक रुपों का सहजजात प्रशंसक का दिखाई देता है। बोर्द्रिओ का मानना है कि अभिजन का नजरिया जिस तरह स्वाभाविक और सहजजात प्रशंसक का नजर आता है,वह वस्तुत: उसकी विशिष्ट सामाजिक अवस्था के कारण है। उच्चवर्गीय पारिवारिक जीवनशैली के कारण श्रेष्ठ संस्कृति को वह सहज ही आत्मसात कर लेता है। संस्कृति की अभिजन इसलिए प्रशंसा नहीं करता कि वह उसके लिए स्वाभाविक है,समझ में आती है। बल्कि उसका संस्कृति के साथ लंबा आंतरिक परिचय रहा है।

कलादीर्घाएं एक तरह से धार्मिक मंदिर के रुप में देखी जाती हैं। इनमें साइलेंस या चुप्पी को काफी महत्व दिया जाता है। वस्तुओं को स्पर्श न करने की हिदायत रहती है। ये परंपरागत कलादीर्घाएं संस्कृति की अभिजनवादी समझ को अभिव्यंजित करती हैं। अभिजन के अनुसार सौन्दर्यबोधीय अनुभव रहस्योद्धाटन के करीब होता है।इसे सच्ची प्रशंसा और समझ के आधार पर चंद लोग ही पा सकते हैं। संस्कृति को पाने वाले चंद अभिजन ही हो सकते हैं। बाकी सब इसके भक्त अथवा संस्कृतिधर्म के भक्त हो सकते हैं। सभी इस पवित्र संस्कृति के स्पर्श से रुपान्तरित कर सकते हैं,मुक्त कर सकते हैं।सभी राज्य के द्वारा चलायी जा रही सांस्कृतिक मुक्ति का आशीर्वाद पा सकते हैं।
इसके विपरीत बोर्द्रिओ ने नयी लोकतांत्रिक मुक्त कलादीर्घाओं की परिकल्पना पेश की। ये कलादीर्घाएं ज्यादा खुली ,स्वागत करने वाली और सहिष्णु हैं। साथ ही ये कला की शिक्षा देती हैं ,समझ बनाती हैं, और प्रशंसाभाव पैदा करने वाली हैं। क्योंकि परंपरागत कला दीर्घाएं सिध्दान्तत: कला की शिक्षा और समझ प्रदान नहीं करतीं।बल्कि ऐसा करने से इंकार करती हैं।

No comments:

Post a Comment